उसे मार्ग में सातावेदनीय रुपी वृक्षादिक की छाया और असातावेदनीय रुपी सूर्य की भीषण गर्मी भी मिलती है।
अब अगर यह आत्मदेव या मुमुक्षु या पथिक इस छाया में रूक जाये, या चिलचिलाती गर्मी से भागे, तो उसका चतुर्गति में ही मरण होता रहेगा.
लेकिन जो भव्यात्मा अपने चैतन्य निज-परमात्मा को प्राप्त करना चाहता है अपने आत्म-पथ में प्रवर्तन कर रहा हो; वह पथिक कैसा होना चाहिये?
इस बात को अगर आपको समझना है, तो आपको मानना होगा कि सच्चा जिज्ञासु कभी भी सांसारिक सातावेदनीय या असातावेदनीय रुपी दुख-सुख की धूप और छांव में अटकता नहीं है।
वह तो अपने चैतन्य की अनंत शीतल शांति को पाने के लिए इस संसार को भूल कर सहज भाव से अपने निज आत्मदेव की प्राप्ति की लगन में समस्त पुण्य-पाप को भूल कर चैतन्य पथ की पगडण्डी पर चलता हुआ आगे बढ़ता ही जाता है।
उसकी लगन इतनी तीव्र होती है कि रास्ते के धूप-छांव रूपी दुख एवं सुख पर उसकी द्रष्टि जाती ही नहीं है।
उसके रास्ते में कर्मों की कितनी भी आँधी और तूफान आवें, या सुख की घनी छाया आवे; मोक्ष-मार्ग का पथिक अपने मार्ग पर चलता ही रहता है।
इसलिए हे आत्मदेव, अब आपको भी अपने परमात्म स्वरूप को पाने के लिये संसार के समस्त सुख एवं दुखों को अस्थाई और विनाशकारी जानकर उनके ममत्व को त्याग देना चाहिये,
फिर अपने चैतन्य की अनंत शीतल शांति के ज्ञानानन्द स्वरूपी आत्म स्वभाव को प्राप्त करने के लिये अंतर्ध्यान रूपी मार्ग पर चल देना चाहिए.
तभी आप सदाकाल रहने वाले ऐसे भगवत-स्वरूप को प्राप्त कर सकेंगे.
तथा फिर चिरकाल तक उसमें रहने वाले अनन्त सुखों में आपका रमण संभव हो सकेगा।
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