इस संसार में प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है एवं दुःखो से दूर रहना चाहता है. किन्तु सुख प्राप्ति की इस कोशिश में उसे दुःख ही दुःख मिलते रहते हैं।
अपने संपूर्ण जीवनकाल के दौरान वह गरीबी, अमीरी, भूख, प्यास, बीमारी, बचपन, जवानी, बुढापा आदि अवस्थाओं से गुजरता हुआ दुःख ही दुःख उठाता रहता है।
कदाचित जब थोड़े से पुण्य का उदय होता है, तब वह अपने अहंकार, अभिमान, मान–प्रतिष्ठा स्वार्थलोलुपता आदि विकारो में चूर होकर इनमें भी दुःख ही दुःख उठाता रहता है।
अपने को भूलकर भी सुख उठाना चाहता है और इस निमित्त कई तरह के प्रयत्न भी करता रहता है। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या अपने को भूलकर कोई सूखी हो सकता है?
क्या आप वास्तव में अपने आपको जानते हैं?
आपके एक जन्म के बाद पुनः दूसरा जन्म होता है और उसमें भी यह दुःख की क्रिया चलती रहती है।
इस तरह हे आत्मदेव, अनादिकाल से अभी तक अनंत बार चौरासी लाख योनियों में बारम्बार जन्म मरण करने के बाद अपनी भूल समझ नहीं पाने के कारण ही आप इस संसार में दुःख उठा रहे हो।
प्रायः यह देखा गया है कि प्रत्येक मनुष्य स्वयं को वर्तमान शरीर जितना ही मानता है. किन्तु यह शरीर और इसकी आयु इस ब्रम्हांड के सामने कितनी तुच्छ है, आइये इस पर विचार करते हैं –
हमारा यह ब्रम्हांड इतना विशाल है कि अभी भी अंतरिक्ष वैज्ञानिक इसे नाप नहीं पाए हैं। वे बस इतना ही कह पा रहे हैं कि पृथ्वी सरीखे कम से कम दस हजार ग्रह ऐसे हो सकते हैं, जहां पर पृथ्वी जैसा जीवन संभव है।
आकाशगंगा में हमारे सूर्य से भी कई गुणा बड़े–बड़े सूर्य हैं जिनका प्रकाश पृथ्वी पर आने में ही करोड़ो वर्ष लग जाते हैं, जबकि प्रकाश की किरण एक वर्ष में दस खरब किलोमीटर की दूरी तय करती है।
अतः आप कल्पना कर सकते हैं कि इन तारों की दूरी हमसे कितनी ज्यादा होगी और यह ब्रम्हांड कितना विशाल होगा कि जिसमें हमारी आकाशगंगा सरीखी हजारों आकाशगंगाएं समाई हुई हैं।
इस ब्रम्हांड के समक्ष पृथ्वी तो समुद्र के सामने एक बूंद के समान तुच्छ मालूम होती है। फिर हमारा यह मानव शरीर और उसकी सौ वर्ष की आयु या जीवन तो इन सबके सामने कितना क्षुद्र सा लगता है।
लेकिन एक बात यह भी है कि जब एक तुच्छ परमाणु में भी अपार शक्ति भरी होती है, तो फिर आप तो इस प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ कृति हो, अतः आपकी शक्ति तो इस संसार में सबसे बड़ी होगी ही.
इस बात को समझने के बाद आपके मन में कई तरह के प्रश्न उठ सकते हैं, जैसे कि –
1. क्या आप जो अभी तक मानते हो, वही सुख का सच्चा मार्ग हो सकता है?
2. क्या यही सत्यं-शिवं-सुन्दरम् की परिकल्पना है?
3. क्या सत्य इतना कुरुप हो सकता है?
4. क्या वस्तुस्थिति को जानने, पहिचाननें और मानने में आपसे कोई बहुत बड़ी भूल तो नही हो रही है?
5. क्या कोई मानव इस संसार से भी बड़ा और शक्तिशाली हो सकता है?
6. क्या आप भी परमात्मा बन सकते हैं?
हे प्रभो, जो यह संसार आपको दिख रहा है, उसका एक उदय (जन्म) है और इस संसार का यह नियम होता है कि जिसका जन्म हुआ है, उसका अंत भी निश्चित ही होता है।
अतः यह संसार नाशवान ही है। इसलिए इस संसार में जो कुछ भी दिख रहा है, वह सब विनाशीक होने के कारण असत्य है, अकल्याणकारी है, असुंदर है।
लेकिन सच्चाई यह है कि आप मानव शरीर नहीं अपितु –
1. चैतन्य- परमात्मा हो,
2. अनादि–अनन्त हो,
3. अनन्त गुणों के पुंज हो,
4. अनन्त शक्तियों के अधिष्ठाता हो,
5. तीन लोक के अधिपति हो,
6. शाश्वत् हो,
7. जन्म–मरण से रहित हो,
8. परमात्मा हो, इसलिए आप स्वयं एकमात्र सत्य हो ।
9. पुनः किसी भी आत्मा द्वारा ही दूसरे आत्मा का कल्याण संभव हो सकता है,
10. अतः आप ही शिव हो।
11. साथ ही जो सदाकाल रहने वाला होता है, वही सुंदर होता है,
12. अतः आप ही सुंदर हो ।
13. इस तरह आपके ही अंदर सत्यं-शिवम्-सुंदरम् की स्थापना है ।
इस संसार का धर्म क्या होता है?
वास्तव में धर्म धृ धातु से बना है, जिसका अर्थ है धारण करना।
अतः सच्चाई में जो आप हो, ऐसे अपने शाश्वत परमात्मा को जानना, मानना और धारण करना ही आपका धर्म होता है।
किन्तु ऐसे अपने आत्म–धर्म को न मानने के कारण ही आपने अनादिकाल से अभी तक के अनन्त वर्षो में आपने –
1. चौरासी लाख योनियों में बारम्बार भ्रमण किया है।
2. जितने भी प्राणी आपको दिख रहे हैं, उन सभी जीव–राशियो में प्रत्येक मनुष्य ने अनन्त बार जन्म लिया है।
3. जिस–जिस जगह पर आप जाते हो, वहां पर भी पूर्व में आपने अनन्त बार जन्म–मरण किया है ।
4. इस तरह जो कुछ भी दिखता है, वे सब भूमिकायें आपने अनन्त बार निबाही हैं।
5. अतः दिखाई दे रही इन सब भूमिकाओं में आपकी आत्मा के ही फोटोग्राफ हैं,
6. अतः ये सब तो आपकी आत्मा का ही एलबम हैं।
इस शाश्वत् सत्य को मानने से आपकी जो अनन्त शक्ति बहिर्मुखी हो रही है, वह फिर अंतरंग में बसे परम आपके निज-परमात्मा को उद्घाटित कर आपको अनन्त-सुख, अनन्त-शांति, अनन्त-समृद्धि का अमृत पान करवायेगी।
सत्यं-शिवम्-सुंदरम् ऐसे अपने चैतन्य-परमात्मा को मानने वाला मानव –
1. प्रत्येक प्राणी को समान समझाता है ।
2. किसी न किसी जन्म में प्रत्येक पुरुष–स्त्री हमारा ही निकट रिश्तेदार रहने के कारण सभी को अपना परिवार का मानता है ।
3. कोई भी मनुष्य हमारा अच्छा या बुरा नहीं कर सकता है। अतः सभी से प्रेम करता है ।
4. किसी से घृणा नहीं करता है ।
5. सभी के कल्याण की भावना रखता है ।
6. दीन–दुःखी एवं कमजोर, पीड़ित, लाचार और बीमार की मदद करता है।
7. सभी को अपने ही समान परमात्मा समझता है और उनके भले के लिए सतत प्रयत्न करता रहता है।
8. अगर प्रत्येक मनुष्य ऐसा जाने और माने तो इस संसार में
9. शांति की स्थापना हो सकती है,
10. सुख का साम्राज्य स्थापित हो सकता है।
अष्टावक्र गीता के प्रकरण 1, सूत्र 3, 6 और 7 में भी समझाया गया है कि –
1. तू मनुष्य शरीर मात्र नहीं है,
2. बल्कि चैतन्य आत्मा है,
3. तू चैतन्य सम्राट है
4. शरीर, मन और बुध्दि आदि तेरे इस संसार के भृत्य हैं,
5. जो तेरे आदेशानुसार सांसारिक कार्य करते हैं.
6. धर्म और अधर्म, सुख और दुःख मन के हैं;
7. वे तेरे लिए नहीं हैं.
8. तू मात्र चैतन्य आत्मा ही है
9. जो न कर्ता है, न भोक्ता है.
10. तू तो सर्वथा मुक्त ही है.
11. यह मुक्ति तेरा स्वभाव ही है.
12. यह आत्मा ही परमात्मा है
13. एवं यही द्रष्टा-ज्ञाता है.
14. इससे भिन्न कोई द्रष्टा नहीं है.
15. धर्म और अधर्म,
16. सुख और दुःख मन के हैं;
17. वे तेरे लिए नहीं हैं.
18. तू तो सर्वदा मुक्त ही है.
19. यह मुक्ति तेरा स्वभाव ही है.
20. अतः यह आत्मा मुक्त ही है,
21. किसी भी बंधन में बंधा ही नहीं है.
22. अज्ञानी ही आत्मा से भिन्न
23. किसी एक ईश्वर को द्रष्टा, कर्म-फल प्रदाता एवं कर्ता मानते हैं;
24. ज्ञानी ऐसा नहीं मानते हैं.
अगर आप यह मानते हैं कि आत्मदेव की महिमा अद्भुत है, अपार है, अकल्पनीय है, अद्भुत है और आध्यात्म की चर्चा ही सर्वोत्कृष्ट श्रेणी की चर्चा होती है, तो फिर इस अति गंभीर तथा उच्च कोटि की तत्व-चर्चा, आत्मचर्चा का आनन्द पाने के लिये आप सभी चैतन्यदेव के रुचिवंत भव्यात्माओं का स्वागत है.
– डॉ. स्वतंत्र
Recent Comments